ताज़ा तरीन खबरेंउत्तर प्रदेश

धर्म-भाषा से प्रेम या विवाद: 22 भाषाओं को दरकिनार कर खत्म होती राजनीति को बचाने की कोशिश

स्टार न्यूज़ टेलीविजन

राकेश पाण्डेय

कोई कहता है– जय श्रीराम बोलना होगा (हिंदुत्ववादी)कोई कहता है– मराठी बोलनी होगी (महाराष्ट्र में मनसे)कोई कहता है– हिंदी पढ़नी होगी (सरकार का त्रिभाषा फ़ार्मूला)
कोई कहता है– हिंदी नहीं चलेगी। कर्नाटक, तमिलनाडु में हिंदी के साइन बोर्ड पर कालिख पोती जाती है।
कोई कहता है– उर्दू नहीं चलेगी, उर्दू पढ़ने से कठमुल्ला बन जाते हैं (यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ)
कोई कहता है– अंग्रेज़ी बोलने में शर्म आएगी (गृहमंत्री अमित शाह)

क्या तमाशा है! ये धर्म और भाषा का विवाद सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति के लिए!! आप क्या समझते हैं इन्हें अपनी भाषा से प्रेम है, नहीं। ये अपनी ख़त्म होती राजनीति को बचाना चाहते हैं। बस।

यह भारत देश सब धर्म और भाषा-भाषियों का देश है। संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता है। साहित्य अकादमी 24 भाषाओं में पुरस्कार देती है। यानी यह सभी भारत की राष्ट्रीय भाषाएं हैं। इसके अलावा भी कई भाषा-बोलियां हैं। सबका इतिहास है, सबका सम्मान है, सबके बोलने वाले हैं। फिर विवाद क्यों?

कोई भाषा बोलने की ज़िद क्यों? हमला क्यों? ऐसी ज़बरदस्ती करोगे तो बेटा, अपने बाप को बाप न कहे। यह तो भाषा का मामला है। ऐसे में तो कोई भाषा आती भी हो, तो भी न बोलें।

एक से ज़्यादा भाषाएं सीखना अच्छी बात है। मानसिक विकास होता है। स्थानीय भाषा आना अच्छी बात है। स्थानीय समाज से जुड़ने, उसके ज़्यादा क़रीब से जानने-समझने का मौका मिलता है। लेकिन क्या यह मारकर सिखाओगे या इसकी कोई व्यवस्था करोगे?

लोगों को प्रोत्साहित कीजिए, भाषा स्कूल खोलिए, जैसे प्राइवेट कोचिंग चल रही हैं, वैसे ही सरकार और संगठनों के स्तर पर मुफ़्त कोचिंग क्लास चलाइए। सम्मान कीजिए, पुरस्कार दीजिए, काम दीजिए। यानी लोगों को प्यार से गले लगाइए, फिर देखिए वे खुद आपके पास आएंगे–आपकी भाषा सीखने। जैसे कोई खाना अच्छा लगने पर लोग आपसे पूछते हैं – कैसे बनाया, रैसीपी बताओ, हमें भी सिखाओ।

आज इडली-डोसा-सांबर सिर्फ़ साउथ में नहीं, पूरे भारत में हर गली-नुक्कड़ पर मिलता है। पूरे देश में मुरादाबादी बिरयानी और हैदराबादी बिरयानी की धूम है। देश ही नहीं, दुनिया में लखनऊ की चिकनाकरी की मांग है।

जैसे कोई कविता-कहानी अच्छी लगने पर इच्छा होती है कि इसे इसकी मूल भाषा में पढ़ा जाए, तो ज़्यादा मज़ा आएगा। फीफा वर्ल्ड कप के दौरान शकीरा का गाया “Waka Waka… This Time for Africa” ऐसा हिट हुआ कि भारत में भी बच्चा बच्चा गाने लगा। आज तक गाते हैं। जब अच्छा लगा, तो अर्थ भी पता किया। इसी तरह प्रसिद्ध इतालवी क्रांतिकारी गीत– हम सब गाते रहते हैं– “Bella ciao, bella ciao, bella ciao, ciao, ciao…”। इसी तरह हिंदी-उर्दू कविता-ग़ज़लें, फ़िल्में दुनिया भर में धूम मचा रही हैं।

कुल मिलाकर कोई भी ज्ञान, कोई भी शिक्षा डंडा मारकर नहीं दी जा सकती। उसमें वो कशिश और ज़रूरत पैदा करो कि लोग उसे अपनाने पर मजबूर हो जाएं।

ज़रूरत ख़ास तौर से यानी उसे रोज़ी-रोटी से जोड़ें। अंग्रेज़ी के प्रसार की कई वजह हैं, लेकिन आज सबसे ज़्यादा बड़ी वजह यही है कि अंग्रेज़ी जानने पर दुनियाभर में जॉब के रास्ते खुल जाते हैं। ऐसे ही अपनी भाषाओं को बनाओ। हालांकि यह भी सही है कि हिंदी प्रदेशों में कभी दूसरे प्रदेशों की भाषाएं सीखने-सिखाने की ज़रूरत ही नहीं समझी गई।

तमिल-तेलगु-मलयालम-कन्नड़-मराठी-गुजराती-बांग्ला आदि ये सभी महान भाषाएं हैं। इनका साहित्य बहुत समृद्ध है। और इन्हें बोलने वाले कुछ न कुछ हिंदी ज़रूर बोल-समझ लेते हैं। लेकिन आमतौर पर हम जैसे लोग इन भाषाओं का एक शब्द भी नहीं जानते। हम अंग्रेज़ी तो सीख लेते हैं, लेकिन अपने ही देश के दूसरे प्रदेश की भाषा नहीं सीखना चाहते। हालांकि मुश्किलें भी कम नहीं। और चाहने से ज़्यादा मामला व्यवस्था का है। हमारे स्कूलों में यह व्यवस्था ही नहीं कि कोई प्रादेशिक भाषा सीख सके। त्रिभाषा फ़ार्मूले के तहत भी यही चालाकी की गई कि हिंदी प्रदेशों में हिंदी, अंग्रेज़ी के साथ संस्कृत रख दी गई। इसके पीछे हिंदी नहीं, बल्कि यहां के ब्राह्मणवाद का संस्कृत को लेकर श्रेष्ठतावाद भी था। वो इसे देवभाषा कहते हैं। जबकि हम-आप जानते हैं कि स्कूली उम्र ही वह उम्र है, जब सबसे ज़्यादा जल्दी और तेज़ी से आप दूसरी चीज़ें सीखते हैं। उसके बाद तो बहुत अतिरिक्त मेहनत और समय चाहिए।

लेकिन आज के संदर्भ में यहां भी वही रोज़ी-रोटी का सवाल है। ऐसा नहीं कि आज हिंदी नहीं पिछड़ रही। अच्छी नौकरी-वेतन-भत्ते पाने के मामले में आज अंग्रेज़ी के मुकाबले हिंदी भी बहुत पिछड़ रही है, यह एक वास्तविकता है।

और ऐसा भी नहीं कि विभिन्न प्रदेशों में रहने और काम करने वाले दूसरे प्रदेशों के लोग वहां की भाषा-बोली नहीं जानते-समझते। पेट सब सिखा देता है। टूरिस्ट प्लेस के गाइड व अन्य दुकानदार, टैक्सी, ऑटो चालक सब समझ लेते हैं कि सामने वाला क्या कह रहा है। स्कूली पढ़ाई न की हो, लिखना न जानते हों तब भी फटाफट अंग्रेज़ी बोल लेते हैं।

और अंत में यही बात कि अगर एक प्रदेश में भाषा को लेकर इस तरह विवाद करोगे, तो फिर यह पूरे देश में शुरू हो जाएगा। भाषा का ऐसा आग्रह, ऐसी कट्टरता भी धर्म और जाति के दुराग्रह और कट्टारता की तरह ही है। निज भाषा गौरव अच्छा है, लेकिन घमंड और दूसरे के लिए तिरस्कार बिल्कुल ठीक नहीं। इसलिए इससे बचिए और ऐसी ज़बरदस्ती और गुंडागर्दी का प्रतिरोध कीजिए।

*(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और श्रमजीवी पत्रकार एशोसिएशन के पदाधिकारी हैं।)*

StarNewsHindi

All news article is reviewed and posted by our Star News Television Team. If any discrepancy found in any article, you may contact [email protected] or you may visit contact us page

Related Articles

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Back to top button