Trendingताज़ा तरीन खबरें

तेजस्वी होंगे मुख्यमंत्री: इस घोषणा से पलटूराम की अवसरवादी राजनीति का अंत होना तय

राकेश पाण्डेय

कांग्रेस की अहंकारी राजनीति से जो झटका महागठबंधन को लगने के आसार बन गए थे, महागठबंधन की जीत के बाद तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने की सहमति की घोषणा के बाद उस पर रोक लग गई है। दूसरी ओर, भाजपा ने एनडीए गठबंधन की ओर से यह साफ कर दिया है कि उसके मुख्यमंत्री का चयन चुनाव के बाद ही होगा। साफ मतलब है कि आज भले ही नीतीश के चेहरे को सामने रखकर भाजपा चुनाव लड़ रही है, लेकिन यदि एनडीए जीतता है, जिसके आसार बहुत कम नजर आ रहे हैं, तो नीतीश का मुख्यमंत्री बनना तय नहीं है। नीतीश कुमार अब जिस फंदे में फंस गए हैं, उससे बाहर निकलना अब उनके लिए संभव नहीं है और चुनाव के बाद यदि वे ऐसी कोशिश करते हैं, तो उनकी पार्टी ही उनको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर फेंकेगी। भाजपा ने जद(यू) को निगलने की पूरी तैयारी कर ली है। तेजस्वी के मुख्यमंत्री होने की घोषणा के बाद नीतीश कुमार के पलटी मारने के मौके भी खत्म हो गए है। नीतीश का भविष्य अब भाजपा-आरएसएस ने तय कर दिया है और चुनाव के नतीजे चाहे इस ओर जाएं या उस ओर, एक नतीजा बहुत ही स्पष्ट है कि बिहार को ‘सुशासन बाबू’ की ‘पलटूराम की राजनीति’ से मुक्ति मिलने जा रही है। बिहार की आम जनता ने भी यह तय कर लिया है, जो पिछले कई सालों से नीतीश कुमार की अवसरवादी राजनीति को झेल रही है। यह वही नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने भाजपा जैसी सांप्रदायिक, भ्रष्ट और आपराधिक पार्टी को, जिसका रथ लालू ने रोक दिया था, को बिहार में पैर जमाने का मौका दिया है।

पिछले चुनाव में महागठबंधन और एनडीए के बीच मात्र 12-13 हजार वोटों का ही अंतर था, लेकिन इस अंतर के कारण एनडीए की 15 सीटें बढ़ गई थीं। कई सीटों पर मतगणना में प्रशासन द्वारा भाजपा के पक्ष में धांधली करने के आरोप भी लगे थे। लेकिन चुनाव आयोग द्वारा बिहार में मतदाता सूची के एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) करने के आदेश के बाद जो हो-हल्ला हुआ और पूरे देश भर से जो चीजें सामने आई, उससे यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पिछले लोकसभा चुनाव सहित अभी तक भाजपा को मिली जीतों में चुनाव आयोग और विभिन्न प्रकार की सुनियोजित धांधलियों का बड़ा योगदान रहा है। इस पोल पट्टी के खुलने से भाजपा की चमक और धमक पर बहुत असर पड़ा है और आम जनता की नजरों में, वास्तव में, भाजपा की राजनैतिक साख गिरी ही है। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप और आम जनता में फैली जागरूकता के बाद अब सत्ता पक्ष द्वारा बिहार चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली किए जाने की संभावना कम ही हुई है। इसका सीधा असर भाजपा-जदयू खेमे के चुनाव नतीजों पर पड़ेगा।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि पांच साल पहले 12-13 हजार वोटों का अंतर इस बार महागठबंधन के पक्ष में 12-13 लाख वोटों के अंतर में बदला हुआ दिख जाएं। इन पांच सालों में गंगा में बहुत पानी बह चुका है। बिहार में गंगा नदी की लंबाई 445 किमी. है और यह नदी राज्य के बीचों बीच बहती है। जिन जिलों से होकर गंगा बहती है, उनमें राज्य के प्रमुख 12 जिले — बक्सर, भोजपुर, सारण, पटना, वैशाली, समस्तीपुर, बेगुसराय, मुंगेर, खगड़िया, कटिहार, भागलपुर और लखीसराय — आते हैं। इन सभी जिलों में भाजपा-जद(यू) गठबंधन की हालत खराब है। हालत इतनी खराब है कि यदि प्रधानमंत्री मोदी यहां आकर “मां गंगा ने बुलाया है” का नारा लगाए, तब भी मां गंगा शायद ही उनकी कोई मदद करने को तैयार हो। इस बार मां गंगा का आशीर्वाद महागठबंधन के साथ दिख रहा है। अब इसे प्रधानमंत्री अपनी ओछी भाषा में महाठगबंधन कहे या महालठबंधन, या उसके साथ जुड़े दलों को अटक-झटक-भटक-लटक दल, या कुछ और ही क्यों न कहें। आम जनता जानती है कि आज नीतीश-मोदी का गठबंधन ही “महालूटबंधन” है, जो दाना और जाल फैलाकर शिकार की ताक में बैठा है।

पिछली बार महागठबंधन की हार का एक बड़ा कारण यह था कि कांग्रेस ने अपनी औकात से ज्यादा 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन जीत हासिल की थी सिर्फ़ 19 पर। वामपंथी दलों ने बहुत कम सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसकी जीत की दर कांग्रेस से लगभग दुगुनी थी। संदेश साफ था कि वामपंथी दलों को यदि ज्यादा सीटें आबंटित की जाती, तो चुनाव के नतीजे महागठबंधन के पक्ष में पलट भी सकते थे। लेकिन कांग्रेस ने इस संदेश को ग्रहण नहीं किया और कुछ सीटों पर वामपंथी दलों के साथ और राजद के साथ टकराव की स्थिति बनी है। इससे भाजपा के खिलाफ लड़ने का और धर्मनिरपेक्षता के लिए लड़ने की कांग्रेस की समझदारी पर सवाल ही खड़े हुए हैं। बिहार में कांग्रेस और वामपंथ का चुनावी जनाधार लगभग बराबर है। लेकिन ज्यादा सीटों पर लड़ने की इस बार भी वामपंथ ने ललक नहीं दिखाई है और इस बार वामपंथ पहले से कहीं ज्यादा एकजुटता और मजबूती के साथ लड़ रहा है और पिछली बार की तुलना में वामपंथ की बहार और ज्यादा दिख रही है। वामपंथ की ज्यादा सफलता महागठबंधन के टिकाऊ भविष्य के लिए जरूरी है।

एसआईआर का मुद्दा चुनाव में गायब हुआ दिख रहा है, जबकि ‘वोटर अधिकार यात्रा’ में यही मुद्दा केंद्र में था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव आयोग को आधार कार्ड को स्वीकार करने का निर्देश देने और इस आधार पर काटे गए मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में जोड़ने के आयोग के फैसले के बाद यह मुद्दा पृष्ठभूमि में चला गया है। लेकिन एसआईआर के जरिए बड़े पैमाने पर पात्र मतदाताओं को, जिनमें से अधिकांश सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर आदिवासी, दलित और पिछड़े समुदाय के गरीब वर्ग के लोग हैं, मतदाता सूची से बाहर धकेलने का खतरा अभी टला नहीं है। आगामी विधानसभा चुनावों के साथ पूरे देश के पैमाने पर इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के साथ एक और संघर्ष हमें देखने को मिलेगा, क्योंकि अब चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था न होकर, भाजपा-आरएसएस की जेबी संस्था के रूप में अपना कायापलट कर चुकी है। इसलिए बिहार चुनाव प्रचार के दौरान महागठबंधन को फिर से इस मुद्दे को केंद्र में लाना होगा, जिसके कारण उसने भाजपा-जद(यू) पर अपनी बढ़त हासिल की थी। बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, खेती-किसानी के मुद्दे तो हैं ही, जिसे पीछे धकेलने की भाजपाई साजिश से महागठबंधन को तो लड़ना ही है। लेकिन गठबंधन को ओछी व्यक्तिगत बातों को लेकर सत्ता पक्ष पर हमले से बचना होगा और उसे नजरअंदाज भी करना होगा, क्योंकि नीचता और ओछेपन में मोदी-शाह और पूरे एनडीए का मुकाबला नहीं किया जा सकता। उनके इस ओछेपन को और नीचे ले जाने के लिए गोदी मीडिया तो है ही।

इस बीच महागठबंधन ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी कर दिया है। इस घोषणा पत्र पर वामपंथ का स्पष्ट असर देखा जा सकता है। वामपंथी पार्टियों के लिए भूमि का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण होता है और घोषणापत्र में हदबंदी से प्राप्त अतिरिक्त जमीन का बंटवारा भूमिहीनों और गरीब किसानों के बीच करने का वादा किया गया है। यह वादा नीतीश कुमार ने भी किया था और इसके लिए उन्होंने बंद्योपाध्याय कमेटी भी बनाई थी, लेकिन बाद में वे इसकी सिफारिशों को लागू करने से मुकर गए। यदि सामाजिक न्याय के वादे के प्रति महागठबंधन ईमानदार होगा, तो भूमि सुधार की नीतियों का क्रियान्वयन बिहार की सामाजिक-राजनैतिक आर्थिक तस्वीर बदलकर रख देगा, क्योंकि भूमि सुधार कार्यक्रम से आम जनता की जो क्रय शक्ति बढ़ेगी, वह न केवल घरेलू बाजार का विस्तार करेगी, बल्कि रोजगार के नए अवसर भी पैदा करेगी। भूमि सुधार के एजेंडे में बिहार को बीमारू राज्य की श्रेणी के निकालने की ताकत है। महागठबंधन ने बेरोजगारी को मुद्दा बनाया है, जो आज बिहार की जनता की सबसे बड़ी समस्या है और अपने घोषणा पत्र में उसने इसका कल्पनाशील समाधान पेश करने की कोशिश की है।

पिछले 11 सालों से जिस विकास का दावा भाजपा कर रही थी, उस विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने से वह बच रही है, तो इसका कारण भी स्पष्ट है। नीति आयोग की रिपोर्ट (2021) बताती है कि बिहार में आज 6.50 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी में जी रहे हैं, 6.58 करोड़ लोग कुपोषित हैं, जिनमें 43.9% बच्चे और 60.3% महिलाएँ भी शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अनुसार, 2022 में भारत का मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) का औसत स्कोर 0.644 था, जबकि बिहार का 0.609 था। इन आँकड़ों में देश के 29 राज्यों की सूची में बिहार सबसे निचले पायदान पर खड़ा है।

यहां 41% महिलाएं ऐसी हैं, जिनकी शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हो गयी थी। इस मानदंड पर बिहार 28वें स्थान पर है। बिहारी महिलाओं की यह स्थिति बच्चों के सेहत को भी प्रभावित करती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, जहाँ भारत की शिशु मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर) 35.2 है, वहीं बिहार 46.8 की दर के साथ 27वें स्थान पर है। उम्र के लिहाज से छोटे क़द वाले सबसे ज्यादा 42.9% बच्चों के साथ 27वें और क़द के हिसाब से कम वजन वाले बच्चों के मामले में 22.9% के साथ बिहार अंतिम 29वें स्थान पर खड़ा है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 9वीं-10वीं कक्षा में स्कूल छोड़ देने वाले (ड्रॉपआउट) बच्चों के मामले में भी बिहार 20.5% के साथ 27वें स्थान पर और 11वीं-12वीं कक्षा में कुल नामांकन अनुपात मात्र 35.9% के साथ बिहार 28वें पायदान पर खड़ा है। स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले केवल 17.1% बच्चे ही कॉलेज शिक्षा में प्रवेश ले पाते हैं, और वह 28वीं पायदान पर है। बिहार में केवल 14.6% परिवार (अंतिम 29वां स्थान) ही ऐसे हैं, जिन्हें स्वास्थ्य बीमा की किसी योजना का लाभ मिलता है।

बिहार में सुशासन के हाल का पता चुनाव प्रचार के दौरान लगातार हो रही हिंसा से ही चल जाता है। पकौड़ा तलने के बाद अब रील बनाकर रोजगार पाने के सपने बिहारी युवाओं को भाजपा दिखा रही है। यह बताता है कि भाजपा के पास न मुद्दे हैं और न उपलब्धियां। इसलिए, अब विपक्ष के गठबंधन के पास चुनाव के बहाने वह पूरे देश की आम जनता को संबोधित करने का भी अवसर है।

लोकसभा में इंडिया ब्लॉक की एकजुटता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत हासिल करने से वंचित कर दिया था। इससे देश की विपक्षी ताकतों में उत्साह का जो संचार हुआ था, उस लहर को महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों में नियोजित धांधली के जरिए भाजपाई खेमे ने ठंडा कर दिया था। अब बिहार चुनाव फिर से इंडिया ब्लॉक को राष्ट्रीय स्तर पर उभरने का मौका दे रहा है, बशर्ते कांग्रेस अपने पार्टीगत हितों पर बिहार की गरीब जनता के हितों को तवज्जो दे। नीतीश का भविष्य मोदी ने तय कर दिया है। इंडिया ब्लॉक का भविष्य वाया महागठबंधन बिहार की आम जनता तय करेगी उसकी एकजुटता और आचरण को देखकर। फिलहाल, कयास लगाने के लिए पूरे दो सप्ताह बाकी हैं।

StarNewsHindi

All news article is reviewed and posted by our Star News Television Team. If any discrepancy found in any article, you may contact [email protected] or you may visit contact us page

Related Articles

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Back to top button