कौन है एक मुश्लिम भक्त जिसके लिए थम जाता लाखो का जन सैलाब व भगवान जगन्नाथ की अद्भुत शोभा यात्रा
स्टार न्यूज टेलिविज़न
राकेश की रिपोर्ट
हर वर्ष ओडिशा मे जगन्नाथ पुरी क मौजूद भगवान जगन्नाथ की अद्भुत शोभायात्रा निकलती है. इस यात्रा में शामिल होने देश-विदेश से लोग पुरी पहुंचते हैं. रथ खींचने में लगे लोगों के अलावा श्रद्धालु भी कोशिश करते हैं कि वे भी भगवान जगन्नाथ के रथ को छू सकें और आशीर्वाद ले सकें।
क्या आप जानते हैं कि यह भव्य यात्रा एक मजार के सामने आकर कुछ देर के लिए रुक जाती है? भगवान के भक्त और उसकी श्रद्धा की यह कहानी इतनी अनूठी है कि आप भी इसके बारे में जानेंगे तो उस भक्त की भक्ति को सलाम करेंगे.
*आशीर्वाद ही नही भगवान ने सालवेग को हमेशा के लिए अमर कर दिया*
यह कहानी है कि भगवान जगन्नाथ के सालबेग की. हर साल अपने बड़े बलराम, बहन सुभद्रा के साथ शहर के भ्रमण पर निकलने वाले भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी गुंडिचा देवी के मंदिर में कुछ दिन रहने जाते हैं. जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा देवी मंदिर की ओर जाने वाली इस रथयात्रा का पहला विराम सालबेग की मजार पर होता है. सालबेग की भक्ति का ही नतीजा है कि न सिर्फ भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया बल्कि हमेशा के लिए अमर कर दिया.
*कौन था सालबेग आपकी जाने पूरी कहानी*
कहा जाता है कि सालबेग के पिता मुस्लिम और मां हिंदू थीं. सालबेग मुगल सेना के एक वीर सिपाही थी. एक युद्ध के दौरान उनके सिर पर ऐसी चोट लगी जो ठीक ही नहीं हो रही थी. इसी के चलते सालबेग को सेना से निकाल दिया गया और वह तनाव में रहने लगे. एकदिन सालबेग की मां ने उन्हें सलाह दी कि वह भगवान जगन्नाथ की शरण में जाएं।
*सालबेग ने मां की बात मान ली और भगवान जगन्नाथ की पूजा करने लगे*
कहा जाता है कि सालबेग की भक्ति से भगवान इतने प्रसन्न हुए कि एकदिन उनके सपने में आए और उनकी चोट ठीक कर दी. सुबह सालबेग उठे और अपनी चोट ठीक पाई तो भागे-भागे जगन्नाथ मंदिर पहुंचे. मुस्लिम होने के कारण उन्हें मंदिर में ही नहीं दिया. उसी वक्त सालबेग ने कहा कि अगर वह असली भक्त हुए तो भगवान खुद उन्हें दर्शन देने आए. कहा जाता है कि सालबेग ने अपने अंत समय तक भगवान की पूजा की लेकिन जगन्नाथ मंदिर में उन्हें कभी दर्शन नही मिला।
*भगवान जगन्नाथ का रथ सालबेग की मजार के सामने अपने-आप रुक गया*
जिस साल सालबेग की मौत हुई उस साल जब रथयात्रा निकली तो भगवान जगन्नाथ का रथ सालबेग की मजार के सामने अपने-आप रुक गया. बहुत कोशिशें हुईं लेकिन रथ नहीं हिला. फिर किसी को सालबेग की याद आई और लोगों ने सालबेग के नाम का जयकारा लगाया. इसके बाद ही रथ बढ़ पाया. तब से यह परंपरा शुरू हो गई है और अब हर साल रथयात्रा यहां जरूर रुकती है.